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ओशो….शून्य से शिखर तक

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ओशो…..
आज
11 दिसम्बर जन्म दिन शायद इक तारीख है
उनके जन्म की वो तो इक विचार है
जीवन के दर्पण पे जो जान गया वो ही समझ गया इक प्रतिभा इक अवसर हम सब में है आओ शून्य से शून्य तक के सफर
पे चले या रुके साक्षी भाव खुद से खुदा तक
सब कुछ हम में है
कुछ भी अलग नही है बस चुरा लो कुछ पल
आपने आप के लिए आपने आप से
और …..कह दे खुद से जन्म दिन मुबारक ………osho

शून्य होना ही एकमात्र पुरुषार्थ है!
संध्याबीती है, कुछ लोग आये हैं। वे कहते हैं,’आप शून्य
सिखाते हैं। पर शून्य के तो विचार से ही भय
लगता है। क्या कोई और सहारा व आधार
नहीं हो सकता है?’
मैं उनसे कहता हूं कि शून्य में कूदने में अवश्य साहस
की जरूरत है। पर जो कूद जाते हैं, वे शून्य को नहीं,
पूर्ण को पाते हैं और जो कोई कल्पित
सहारा और आधार पकड़ते रहते हैं, वे शून्य में
ही अटके रहते हैं। कल्पनाओं के सहारे और आधार
भी क्या कोई सहारे और आधार होते हैं!
सत्य का सहारा और आधार केवल शून्य से
ही मिलता है। शून्य होने का अर्थ- कल्पनाओं के
सहारों और आधारों से ही शून्य होना है।
एक कहानी उनसे कहता हूं – एक अमावस
की अंधेरी रात्रि में, पर्वतीय निर्जन से गुजरते
अजनबी यात्री ने पाया कि वह किसी खड्ड
में गिर गया है। उसके पैर चट्टान से फिसल गये हैं
और एक झाड़ी को पकड़ कर लटक गया है।
चारों और अंधकार है। नीचे भी भयंकर अंधकार
और खड्ड है। घंटों वह उस झाड़ी को पकड़
लटका रहा और इस समय में संभाव्य मृत्यु की बहुत
पीड़ा सही। सर्दी की रात्रि थी। फिर
क्रमश: उसके हाथ ठंडे और जड़ हो गये। अंतत: उसके
हाथों ने जवाब दे दिया। उसे उस भयंकर खड्ड में
गिरना ही पड़ा। उसकी कोई चेष्टा सफल
नहीं हो सकी और अपनी आंखों से स्वयं को मृत्यु के मुंह में जाते देखा। वह गिरा, पर गिरा नहीं। वहां खड्ड था ही नहीं। गिरते ही उसने
पाया कि वह जमीन पर खड़ा है।
ऐसे ही मैंने भी पाया है। शून्य में गिरकर
पाया कि शून्य ही भूमि है। चित्त के सब आधार जो छोड़ देता है, वह प्रभु का आधार
पा जाता है। शून्य होने का पुरुषार्थ
ही एकमात्र पुरुषार्थ है और जो शून्य होने
की शक्ति नहीं जुटा पाता है, वे ‘शून्य’ ही बने
रह जाते हैं।
ओशो — wi

मैरा जन्‍म स्‍थान, कुच वाड़ा, एक ऐसा गांव था जहां कोई पोस्‍ट आफिस नहीं था, कोई रेलवे लाइन नहीं थी। वहां पर छोटी-छोटी पहाडियाँ थी या टीले थे और सुंदर झील थी और फूस की कुछ झोपड़ियों थी। ईंटों से बना पक्‍का मकान एक ही था जहां मेरी जन्‍म हुआ। और वह भी कोर्इ बहुत बड़ा मकान नहीं था। एक छोटा से मकान था।

अभी मैं उसे देख सकता हूं और पूरा ब्‍योरा दे सकता हूं। लेकिन उस मकान और गांव से ज्‍यादा मुझे वहां के लोग याद है। मैं लाखों लोगों से मिला हूं किंतु उस गांव जैसे सरल लोग और कहीं नहीं है। क्‍योंकि वे ग्रामीण लोग थे। उनको दुनिया के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उस गांव में एक भी अख़बार कभी नहीं आया। अंब तुम समझ सकते हो कि वहां कोई स्‍कूल क्‍यों नहीं था, प्राइमरी स्‍कूल तक नहीं था। क्‍या सौभाग्‍य था। आज के किसी बच्‍चे को यह सौभाग्‍य नहीं मिल सकता।

उन वर्षो में मैं अशिक्षित ही रहा और बहुत सुंदर समय था।

मैं अभी भी उस छोटे से गांव को देख सकता हूं—तालाब के पास थोड़ी सी झोपड़ियों और कुछ ऊंचे-ऊंचे पेड़ जिनके नीचे मैं खेलता था। गांव में कोई स्‍कूल नहीं था। यह बात बहुत महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि लगभग नौ साल तक मैं बिलकुल पढ़ा लिखा नहीं था। यह समय( व्‍यक्ति के निर्माण के लिए) बहुत ही महत्‍वपूर्ण होता है। ।फिर तुम कोशिश भी करों तो शिक्षित नहीं हो सकते। तो एक प्रकार से मैं अभी भी अशिक्षित हूं, यद्यपि डि़ग्रियां मेरे पास बहुत है। कोई भी अशिक्षित व्‍यक्ति यह कर सकता था। और साधारण डिग्री नहीं, एम. ए. की प्रथम श्रेणी की डिग्री—वह भी कोई भी बेवकूफ प्राप्‍त कर सकता है। इसका कोई महत्‍व नहीं है, क्‍योंकि प्र‍तिवर्ष हजारों बेवकूफ इसे प्राप्‍त करते है। महत्‍वपूर्ण केवल यह है कि अपने आरंभिक वर्षो में मुझे कोई शिक्षा नहीं मिली। बाद में उस गांव से दूर जाकर भी मैं उसी दुनियां में रहा—अशिक्षित।
ओशो
साभार
स्वर्णिम बचपन

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